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यमापो॒ अद्र॑यो॒ वना॒ गर्भ॑मृ॒तस्य॒ पिप्र॑ति। सह॑सा॒ यो म॑थि॒तो जाय॑ते॒ नृभिः॑ पृथि॒व्या अधि॒ सान॑वि ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yam āpo adrayo vanā garbham ṛtasya piprati | sahasā yo mathito jāyate nṛbhiḥ pṛthivyā adhi sānavi ||

पद पाठ

यम्। आपः॑। अद्र॑यः। वना॑। गर्भ॑म्। ऋ॒तस्य॑। पिप्र॑ति। सह॑सा। यः। म॒थि॒तः। जाय॑ते। नृऽभिः॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। सान॑वि ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:48» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यम्) जिस (ऋतस्य) जल के (गर्भम्) गर्भरूप संसार को (आपः) जल (अद्रयः) मेघ और (वना) किरण (पिप्रति) पूरण करते हैं और (यः) जो (नृभिः) नायक मनुष्यों से (सहसा) बल से (मथितः) मथा हुआ (पृथिव्याः) पृथिवी के (अधि) ऊपर (सानवि) पर्वत के शिखर पर (जायते) प्रसिद्ध होता है, उस अग्नि को तुम अच्छे प्रकार युक्त करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो सब में व्याप्त होकर रहनेवाले अग्नि को विद्वान् जन प्राप्त होते और मथि के प्रदीप्त करते हैं, वे भूमि के राज्य करने में अधिष्ठाता होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यमृतस्य गर्भमापोऽद्रयो वना पिप्रति यो नृभिः सहसा मथितः पृथिव्या अधि सानवि जायते तं यूयं सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) (आपः) जलानि (अद्रयः) मेघाः (वना) किरणाः (गर्भम्) (ऋतस्य) जलस्य (पिप्रति) पूरयन्ति (सहसा) बलेन (यः) (मथितः) विलोडितः (जायते) (नृभिः) नायकैः (पृथिव्याः) (अधि) उपरि (सानवि) पवर्तस्य शिखरे ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये सर्वान्तःस्थमग्निं विद्वांसः प्राप्नुवन्ति मथित्वा प्रदीपयन्ति ते भूमिराज्येऽधिष्ठातारो जायन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! सर्वांत व्याप्त असलेल्या अग्नीला जे विद्वान लोक प्राप्त करतात व मंथनाने प्रदीप्त करतात ते भूमीवरील राज्याचे अधिष्ठाता बनतात. ॥ ५ ॥